Vijay Goel

हिंदी को फिर बनाइए माथे की बिंदी

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं और अटल जी के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री थे)
 
दिल्ली में डिजिटल इंडिया वीक के उदघाटन पर मेदांता हॉस्पिटल के डॉ. अनिल अग्रवाल ने हिंदी में बोलना शुरू किया, तो स्टेडियम तालियों से गूंज उठा। इससे पहले रिलायंस ग्रुप के मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी और टाटा ग्रुप के साइरस मिस्त्री, भारती ग्रुप के सुनील मित्तल, आदित्य बिरला और अज़ीम प्रेमजी जैसे बहुत से बड़े उद्योगपतियों ने अंग्रेज़ी में विचार रखे। डॉ. अनिल अग्रवाल के हिंदी में भाषण का स्वागत जिस तरह हुआ, उसने मुझे सोचने को मजबूर किया।
 
मुझे लगा कि अंग्रेज़ी में बोलने वालों को क्या हिंदी आती नहीं? या फिर वे सोचते हैं कि हिंदी में बोलेंगे, तो श्रोता समझेंगे नहीं या फिर उनके दिल में हीन भावना है कि हिंदी बोलेंगे, तो कोई उन्हें बड़ा आदमी नहीं समझेगा? या फिर उन्हें अंग्रेज़ी बोलने की आदत पड़ गई है? बहरहाल, मैं काफ़ी वक़्त तक मानता रहा कि अंग्रेज़ी बोलने वालों को देश के लोग श्रेष्ठ मानते होंगे। मेरी पार्टी के कई वरिष्ठ नेता भी अंग्रेज़ी बोलने वालों को बुद्धिजीवी समझते हैं। बाद में साफ़ हुआ कि अंग्रेज़ी बोलने वाले नेताओं की साख लोगों के बीच है ही नहीं। वे कितने लोकप्रिय हैं, इस बात का पता तो तब चलता, जब वे कभी चुनाव लड़ते। हम इस बात को इस तरह समझ सकते हैं कि जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी, ये सभी नेता हिंदी बोलकर ही लोकप्रिय हुए हैं। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदी में ही बोलते रहे, तो कुछ लोगों ने समझा होगा कि अंग्रेज़ी में वे तंग हैं। लेकिन अब जब कई मौक़ों पर वे धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते हैं, तो बहुत से अंग्रेज़ीदां भी दातों तले उंगली दबा लेते हैं। मोदी जी को हिंदी बोलना इसलिए अच्छा लगता है। यह हमारी मातृ भाषा है। कहने का मतलब कोई हिंदी बोलता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह अंग्रेज़ी बोल ही नहीं सकता। 
 
मुझे तब बहुत ताज़्जुब होता है, जब अच्छी तरह हिंदी जानने-बोलने वाले बहुत से
नेता संसद में अंग्रेज़ी में ही भाषण देते हैं। वे समझते हैं कि इससे उनका कॉलर
ऊंचा हो जाएगा। दिलचस्प बात यह है कि ये सभी नेता हिंदी में वोट मांगकर ही संसद तक पहुंचते हैं। तो क्या उनको लगता है कि संसद में हिंदी बोलेंगे, तो स्टेटस कम हो जाएगा?
 
मैं मानता हूं कि अंग्रेज़ी अच्छी भाषा है। ग्लोबलाइज़ेशन के मौजूदा दौर में दुनिया
भर में समझी जाती है। लिहाज़ा तरक़्की के लिए, रोज़गार पाने के लिए नौजवानों को अंग्रेज़ी सीखना बहुत ज़रूरी है। लेकिन अपने ही देश में अगर हम अंग्रेज़ी को हिंदी के सिर पर बैठाएंगे, तो हमारी अस्मिता, हमारा वजूद ख़त्म होने में देर नहीं लगेगी। पता नहीं क्यों हमारे नौजवान अंग्रेज़ी को लेकर हीन भावना से भरे रहते हैं। यह मैंने ख़ुद महसूस किया है, क्योंकि बारहवीं तक मेरी शिक्षा का माध्यम हिंदी था। बाद में दिल्ली के श्रीराम कॉलेज से बीकॉम, एमकॉम अंग्रेज़ी माध्यम से करा. हमारे पिताजी ने हमें यही सिखाया कि भाषा अपनी ही अच्छी होती है। यही सीख थी, जिसने बाद में सियासी जिंदगी में मुझे प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री पद तक पहुंचाया।
 
अभी मैं संसद की कई अहम कमेटियों जैसे- पब्लिक अकाउंट्स कमेटी यानी लोक
लेखा समिति, पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ऑन होम अफ़ेयर्स यानी गृह मंत्रालय से जुड़ी संसदीय स्थाई समिति और कंसलटेटिव कमेटी ऑफ अरबन डेवलपमेंट यानी शहरी विकास से जुड़ी सलाहकार समिति का सदस्य हूं। इन कमेटियों की बैठकों में अफ़सर अक्सर हिंदी जानते हुए भी सभी अफसर अंग्रेज़ी में राय रखते हैं। कमेटियों के कई सांसद अंग्रेज़ी नहीं जानते, फिर भी उनमें अफ़सरों को टोकने का साहस नहीं होता। कमेटी की कारवाई ज्यादातर अंग्रेजी में चलती रहती है।
 
यह विडंबना ही है कि जो सांसद देश का क़ानून बनाने में योगदान करता है, वह किसी हीन भावना की वजह से अंग्रेज़ी के सामने ख़ुद दब्बू हो जाता है। बहुत अच्छा लगता है, जब हिंदी और अंग्रेज़ी बोलने वाले हिंदी में ही अपनी बात रखते हैं। कमेटियों की मींटिंग से पहले अगर सदस्यों से राय ली जाए, तो शायद बहुमत हमेशा हिंदी के पक्ष में ही रहेगा।
 
आमतौर पर दलील रहती है कि संसद में दक्षिण भाषी सांसद भी होते हैं, लिहाज़ा अंग्रेज़ी बोलना ही सही होता है। लेकिन यहां सवाल उत्तर और दक्षिण भारतीय सांसदों का नहीं, बल्कि भाषा की समझ का है। ज़्यादातर दक्षिण भारतीय सांसद हिंदी समझते हैं, बोल भले ही न पाएं। फिर हिंदी में बोलने में क्या दिक़्कत होनी चाहिए। आख़िर हिंदी हमारी मातृ भाषा है। मैं ख़ुद दक्षिण भारतीय भाषाओं का बहुत आदर करता हूं। हमारे घर पर एक दक्षिण भारतीय परिवार 20 साल तक किराए पर रहा। वे अच्छी हिंदी सीखें।
 
हिंदी के साथ एक और वैज्ञानिक सहूलियत जुड़ी है। दुनिया की शायद ही ऐसी कोई भाषा होगी, जो जैसे बोली जाती है, देवनागरी लिपि में वैसे ही लिखी भी जाती है। मेरा मानना है कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक हिंदी को फैलाने का काम हिंदी फिल्मों ने बख़ूबी किया है। इसके लिए बॉलीवुड को बड़े से बड़ा सम्मान मिलना चाहिए। लेकिन यहां भी एक विडंबना है। हिंदी सिनेमा के हीरो-हीरोइन फिल्मों में अच्छी हिंदी में ज़ोरदार और सही उच्चारण के साथ डायलॉग बोलते हैं, लेकिन इंटरव्यू या फिर अवॉर्ड लेते वक़्त अंग्रेज़ी में ही बोलते हैं। यानी फ़िल्मों के बाहर वे अंग्रेज़ी में बोलना शान समझते हैं। जो भाषा आपको देश-विदेश में सम्मान दिलाए, अगर उसे बोलना शान नहीं है, तो माफ़ कीजिएगा, मेरे विचार से यह देश का अपमान है।
 
अभी मुझे हिंदी सलाहकार समिति में शामिल किया गया। हर साल हमारी सरकारें और सरकारी विभाग हिंदी सप्ताह या पखवाड़ा मनाते हैं। आज़ादी के इतने साल बाद भी हिंदी पखवाड़े की ज़रूरत अगर पड़ रही है, तो यह शर्म की बात है। ऐसा लगता है कि हम भारत में ‘फ्रेंच वीक’ या और किसी विदेशी भाषा का हफ्ता या पखवाड़ा मना रहे हैं। दरअसल अंग्रेज़ियत आज की पीढ़ी के पूरे वजूद पर हावी है।
 
यही वजह है कि वह हिंदी बोलना अपनी तौहीन समझने लगी है। अब के बच्चों को बताओ कि ताश के बावन पत्ते होते हैं, तो उन्हें बताना पड़ता है कि बावन यानी फ़िफ़्टी टू। पिछले दिनों एक बच्चा दूसरे बच्चे को रामायण का एक प्रसंग समझा रहा था- यू नो, वन रावना स्टोल द वाइफ़ ऑफ़ रामा। (बिकॉज़) लक्ष्मना टुक पंगा विद सूर्पनखा। सो लाइक दिस डूड हैड लाइक अ बिग कूल किंगडम एंड पीपल लाईकड हिम. बट, लाइक, हिज स्टेप-मॉम शी फोर्सड हर हसबंड टू लाइक, सेंड दिस कूल डूड, ही वास राम, टू सम नेशनल फारेस्ट और समथिंग…(You know, one Rawana stole the wife of Rama, because Laxmana took panga with Supernakhan. So like this dude had, like a big cool kingdom and people liked him. But, like, his steep-mom she forced her husband to, like, send this cool-dude, he was Ram, to some national forest or something…)
 
एक ज़माना था जब, देवकीनंदन खत्री जी के उपन्यासों की सीरीज़ ‘चंद्रकांता संतति’
पढ़ने के लिए पूरी दुनिया के लोगों ने हिंदी सीखी थी। मैंने स्कूल के दिनों में ही
चंद्रकांता संतति के अलावा भूतनाथ समेत कई उपन्यास पढ़ लिए थे। मुझे तो अपने हिंदी भाषी होने पर गर्व है।
 
एक समस्या और है। हिंदी को हमारे कुछ विद्वानों या कहें कि लकीर के फ़कीर लोगों ने इतना कठिन बना दिया है कि पूछिए मत। अगर कोई सरकारी अफ़सर हिंदी में काम करना भी चाहे, तो उसकी हिम्मत जवाब दे जाती है। संसद में भी जो परिपत्र हिंदी में आते हैं, उन्हें समझने में मुझ जैसे हिंदी प्रेमी को एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ता है। सरकारी हिंदी को जन साधारण की हिंदी से बहुत अलग कर दिया गया है। अटल जी जब प्रधानमंत्री थे, तो एक बार वहां आर्य समाज के कार्यक्रम में मैंने सुझाव दिया कि क्यों नहीं सत्यार्थ प्रकाश को सरल बनाया जाता, ताकि देश के बहुत से लोग आसानी से उसे समझ पाएं। 
 
यह सोचकर बहुत परेशानी होती है कि हमारे बहुत से नेताओं ने हिंदी को महज़ वोट बैंक बना कर रख दिया है। जबकि हालात यह हैं कि आज भी जब संसद में हिंदी में अच्छे भाषण दिए जाते हैं, तब जमकर तालियां बजती हैं। बॉलीवुड की हिंदी फ़िल्में अंग्रेज़ीदां होते जा रहे मिडिल और अपर मिडिल क्लास के दर्शकों की वजह से ही खरबों का कारोबार कर रही हैं। हिंदी के किसी डायलॉग पर सिनेमा हॉल में जब तालियां बजती हैं, तब अंग्रेज़ीपन कहां ग़ायब हो जाता है, पता नहीं।
 
मुझे याद है कि एक दौर में सारिका, दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नंदन, पराग, हंस, कथादेश, ज्ञानोदय, पहल जैसी बहुत सी हिंदी पत्रिकाओं का बोलबाला था। पढ़े-लिखे परिवारों के ड्राइंग रूम में इनकी मौजूदगी स्टेटस सिंबल मानी जाती थी, लेकिन आज इसका उल्टा हो गया है। एक तो बहुत सी पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया, फिर अंग्रेज़ियत हमारे स्वभाव में पता नहीं किस साज़िश के तहत घोल दी गई है। बहुत से मिडिल और अपर मिडिल क्लास माता-पिता ही अपने बच्चों को हिंदी से दूर होने का संदेश देते हैं। लेकिन मैं पूरी शिद्दत से कहना चाहता हूं- अंग्रेज़ी पढ़ो, जहां ज़रूरत हो गढ़ो, लेकिन हिंदी के ऊपर मत मढ़ो। भारतेंदु का सूत्र वाक्य मानो- निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।

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