Vijay Goel

संसद में विकास की ही बात हो

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
 
संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है, लेकिन विपक्ष में बैठे मेरे कई मित्र सांसद देश के विकास की न सोचते हुए एक कम ज़रूरी मुद्दे पर संसद का माहौल गर्म करने की कोशिश कर रहे हैं। ग़ैर-ज़रूरी मुद्दा है देश में असहिष्णुता यानी असहनशीलता का। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की भांजी नयन तारा सहगल ने वर्ष 1986 के लिए मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर देश में असहिष्णुता का मुद्दे को हवा दी। सरकार ने संसद के चलने में यह मुद्दा रूकावट न बने, इसलिए इस मुद्दे पर बहस करना स्वीकार कर लिया.
 
उसके बाद से लगातार बहुत से मंचों पर इसे लेकर बहस हो रही है। दिलचस्प बात यह है कि विकास की राह देख रहे देश के आम नागरिकों को इससे कोई लेना-देना नहीं है। फिर भी अख़बारों और न्यूज़ टेलीविज़न मीडिया ने इस बहस को इतना खींच दिया है जैसे इससे बड़ा मसला देश के सामने कोई दूसरा है ही नहीं। देश के आम नागरिकों ने भारी बहुमत से नरेंद्र भाई मोदी की अगुवाई में एनडीए को जिताकर केंद्र की सरकार बनाई, तो उन्हें उम्मीद थी कि देश विकास की राह पर सही तरीके से आगे बढ़ेगा। लेकिन कुछ लोगों ने कुछ छोटे मसलों को इतना बड़ा बना दिया कि महज़ डेढ़ साल के मोदी सरकार के शासन के दौरान ही ऐसे सवाल उठाए जाने लगे कि लगा मानो आज़ादी के बाद से ही मोदी देश के प्रधानमंत्री हों। जिन मसलों को बेवजह तूल दिया गया, उनमें से एक असहिष्णुता यानी असहनशीलता का भी है।
 
देश में असहनशीलता बढ़ने का आरोप लगाकर अभी तक लगभग पांच सौ जीवित व्यक्तियों में से चालीस के आसपास कथित विद्वानों ने सम्मान लौटाए हैं। जबकि हक़ीक़त यह है कि देश की संसद सवा अरब लोगों की नुमाइंदगी करती है यानी पूरे देश की नुमाइंदगी करती है। लोकतंत्र में लोक ही सबसे अहम होता है, सबसे ऊपर होता है। लोक यानी आम आदमी संसद चलाने के लिए अपने वोट के ज़रिए लोकसभा चुनता है। ऊपरी सदन यानी राज्यसभा के चुनाव का तरीक़ा थोड़ा अलग है, लेकिन वह भी एक तरह से आम आदमी के वोट से चुने गए जन-प्रतिनिधियों द्वारा ही चुनी जाती है, तो कहा जा सकता है कि इसमें भी आम आदमी की भावना का प्रतिबिंब होता है। अब पाठकगण ही तय कीजिए कि देश में चालीस लोगों की बेबुनियाद और मौक़ापरस्त आवाज़ पर हंगामा होना चाहिए या फिर देश की सवा अरब जनता की आवाज़ सुनी जाए, मैं तो साफ़-साफ़ मानता हूं कि संसद में देश की जनता की आवाज़ ही गूंजनी चाहिए। चंद लोगों की स्वार्थी सोच का शोर संसद में उठने का मतलब है कि हम लोकतंत्र की मूल भावना की अनदेखी कर रहे हैं।
 
जिन चालीस लोगों ने देश में असहनशीलता बढ़ने का आरोप सार्वजनिक तौर पर लगाया है, उनमें कई बेहद पॉपुलर अभिनेता भी हैं। एक तो वही आमिर ख़ान हैं, जिन्होंने स्वच्छता अभियान की शुरुआत करने वाले मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ शिकरत की। पूरी तन्मयता के साथ गीत गाया और नारे लगाए। कितनी अजीब बात है कि जो अभिनेता देश के लोगों के सिर-आंखों पर हो, वह ऐसी बात कहे! हमारे देश का चरित्र सहनशीलता का ही है, यह बात आमिर अच्छी तरह से महसूस करते होंगे, लेकिन पता नहीं क्या मजबूरी है कि उन्हें ऐसा बयान देना पड़ता है? मुंबई में रह रहे आमिर ख़ान को 26/11 का हमला असहिष्णुता नहीं लगा, 1984 का सिख विरोधी दंगा उन्हें अहसनशीलता नहीं लगा। जम्मू-कश्मीर में रोज़ाना हो रहे आतंकी हमले उन्हें असहिष्णुता नहीं लगते, तो क्या कहूं, आमिर और असहनशीलता की बात कहने वाले सभी सम्मानित विद्वानों को देश के आम लोगों ने भरपूर सम्मान दिया, फिर ये लोग ऐसे बयान देकर देश में डर और दहशत का माहौल क्यों बना रहे हैं ? आमिर तो यहां तक कह गए कि उनकी पत्नी को अब इतना डर लगा कि वे देश छोड़ने तक की बात कहने लगी.  सवाल यह है कि क्या आमिर को देश की आज़ादी का इतिहास पता नहीं है? पूरी दुनिया जानती है कि अंग्रेज़ों ने किस क़दर ज़ुल्म ढाए। जब इंतेहा हो गई, तो देश के लोगों ने धर्म और जाति की भावना से ऊपर उठकर अंग्रेज़ों से लोहा लिया। देश छोड़कर जाने की नहीं सोची। असहिष्णुता का आरोप लगाने वाले ख़ुद के आहत होने की बात कह रहे हैं।
 
लेकिन क्या उन्हें नहीं लगता कि उनके बयान देश के करोड़ों लोगों की भावनाओं को आहत कर रहे हैं?
 
केंद्र की मोदी सरकार को अभी बहुत से ऐसे काम करने हैं, जो आज़ादी के बाद अभी तक कभी के हो जाने चाहिए थे, लेकिन नहीं हो पाए। पिछली सरकारों ने उन पर ध्यान ही नहीं दिया। एनडीए सरकार अपना रोडमैप तैयार भी कर चुकी है, लेकिन बेवजह की बहसबाज़ी और हंगामे की वजह से संसद में विधायी कामकाज को तरज़ीह ही नहीं दी जा रही। पिछले मॉनसून सत्र में क़रीब-क़रीब कामकाज होने ही नहीं दिया गया। कोई अहम बिल मॉनसून सत्र में गंभीरता से नहीं लिया गया।
 
कथित असहिष्णुता पर बहस के लिए कांग्रेस ने नोटिस शीतकालीन सत्र से पहले ही दे दिया था। सरकार भी मान गई। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि छह अक्टूबर से लेकर अब तक पिछले क़रीब-क़रीब दो महीने से जब मीडिया में सभी पार्टियों के प्रवक्ता चीख-चीख कर इस मुद्दे पर बहस कर चुके हैं। देश के जिन ज्यादातर लोगों को इस बहस में कोई दिलचस्पी नहीं है, उनके कान भी टीवी और अख़बारों की बहसें सुन-सुन कर पक चुके हैं, तो अब संसद में इस पर बहस की क्या ज़रूरत थी? प्रधानमंत्री ने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपने निवास पर चाय पर बुलाकर अच्छे सकारात्मक माहौल के संकेत दे ही दिए थे, फिर देश को एक ऐसी नकारात्मक बहस सुनने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है, जिससे पूरी दुनिया में देश के चरित्र को लेकर गलत संदेश ही जाएगा?
 
सभी जानते हैं कि पिछले मॉनसून सत्र का ज्यादातर वक़्त हंगामे की भेंट चढ़ा। अब शीतकालीन सत्र में तो कम से कम देश के विकास के रोडमैप पर काम होने दीजिए! संसद में हंगामे और असहिष्णुता जैसे मुद्दों पर बेनतीजा, बेसबब कुल मिलाकर कहें, तो अनुत्पादक बहसों की वजह से देश के आम टैक्स पेयर की जेब को कितना चूना लगता है, यह भी गंभीरता से सोचने की बात है। तथ्य यह है कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही का ख़र्च ढाई लाख रुपए आता है। यानी एक घंटे तक संसद चलती है, तो सरकार की जेब से डेढ़ करोड़ रुपए निकल जाते हैं।
 
सरकार की जेब आम आदमी पर लगाए जाने वाले टैक्स से भी भरती है। मोटे तौर पर मानें तो संसद में एक दिन में छह घंटे कार्यवाही हो, तो नौ करोड़ रुपए इस पर ख़र्च होते हैं। यानी काम हो या नहीं हो, संसद सत्र के दौरान नौ करोड़ रुपए प्रतिदिन ख़र्च होते ही हैं। क्या यह छोटी बर्बादी है? क्या लोकतांत्रिक देश की लोकतांत्रिक पार्टियों को इस बारे में नहीं सोचना चाहिए?
 
संसद में कई महत्वपूर्ण बिल पारित होने हैं। ये ऐसे बिल हैं, जिनसे देश में विकास की नई राह बनेगी। पहले से विकास का जो रास्ता बना हुआ है, वह और मज़बूत होगा। उस पर चलने वालों को ज़्यादा सहूलियत होगी। इस वक़्त लोकसभा में आठ अहम बिल और राज्यसभा में 11 प्रमुख बिल लंबित हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण बिल है वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी बिल, जिसमे कांग्रेस तीन शर्ते लगा रही है, जब 2011 में उनकी सरकार बिल लेकर आई थी, तब उसमें नहीं थी.  दूसरा बिल है, लैंड बिल। लैंड बिल संसद की संयुक्त समिति के पास है। चेक बाउंस से जुड़ा – द नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स (अमंडमेंट) बिल- और द कमर्शियल डिवीज़न एंड कमर्शियल अपीलेट डिवीज़न बिल- भी शामिल हैं। एक और बिल है-आर्बिट्रेशन एंड कॉन्सिलिएशन( अमंडमेंट) बिल। इस बिल का मक़सद बीच-बचाव के ज़रिए विवाद जल्दी निपटाना है। दूसरे अहम पेंडिंग बिलों में व्हिसिल ब्लोअर प्रोटेक्शन (अमंडमेंट) बिल- भी है। इसके अलावा बेनामी लेनदेन, उपभोक्ता संरक्षण के साथ-साथ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की सेवाओं से जुड़े बिल भी हैं। एक और महत्वपूर्ण बिल एमएसएमई सेक्टर के विकास के लिए है। अगर ये बिल पास होते हैं, तो आम आदमी से लेकर छोटे-मंझोले कारोबारियों तक को सहूलियतें मिलने लगेंगी, लेकिन इसके लिए सकारात्मक सोच की सख़्त ज़रूरत है।
 
विपक्ष को यह समझने की ज़रूरत है कि विकास के काम में रोड़े भी न अटकाए जाएं और किन्हीं मुद्दों पर विरोध है, तो वह भी अभिव्यक्त किया जाए। ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि संसद जिस काम के लिए है, वही काम नहीं होने दिया जाए। काम  भी हो और बहस भी हो, तभी लोकतन्त्र की मूल भावना बरकरार रहेगी, अन्यथा हम भीड़तंत्र होकर रह जाएंगे।
 

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My visions for Delhi stems from these inspiring words of Swami Vivekanada. I sincerely believe that Delhi has enough number of brave, bold men and women who can make it not only one of the best cities.

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