Vijay Goel

इफ्तार क्यों बने राजनीति का अखाड़ा

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)

बचपन से मैं एक हैरिटेज प्रेमी रहा हूं। हैरिटेज सिटी होने के कारण चांदनी चौक से मेरा नाता बचपन से जुड़ा रहा। उसके बाद मुझे वहां से दो बार सांसद बनने का मौका मिला। वहां रहते हुए मैंने पुरानी दिल्ली की गंगा-जमुनी तहज़ीब देखी और मुझे हिन्दू तीज-त्योहारों के साथ-साथ मुस्लिम त्योहारों को भी नजदीक से देखने का मौका मिला।

जहां हिन्दुओं में लगभग हर दिन एक त्योहार होता है और पूरे साल होली, दिवाली वे अन्य त्योहार चलते रहते हैं वहीं मुस्लिमों और ईसाईयों में दो-तीन ही बड़े त्यौहार कहे जा सकते हैं। ईसाईयों मेंक्रिसमस, गुड फ्राइडे व ईस्टर और मुसलमानों में साल में दो बार ईद और रमजान का महीना जिसे त्योहार कम उपासना ज्यादा कहा जाना चाहिए। इस्लाम में ईद चांद को देखकर मनाई जाती है और मैंने देखा कि ईद में भी होली, दिवाली की तरह ही बाजार सजे होते हैं और बच्चे नए-नए कपड़े पहनकर इतराते हुए इस त्योहार को मनाते हैं।

मैंने बचपन से ही पढ़ा था कि इस्लाम में रमजान का महीना बहुत महत्वपूर्ण होता है। ऐसा माना जाता है कि इसी महीने में अल्लाह ने पैगम्बर मोहम्मद पर पवित्र कुरान अवतरित की थी। इसलिए इसे खुदा की दया और उदारता का महीना माना जाता है। एक मान्यता यह भी है कि नियमपूर्वक रोजा रखने वाले मुसलमानों पर अल्लाह की मेहरबानी खुशहाली और सम्पन्नता के रूप में बरसती है। उनका बड़े से बड़ा गुनाह खुदा माफ कर देता है। एक पक्का मुसलमान पूरे दिन रोज़ा रखने के बाद इफ्तार खोलने से पहले इबादत करते हुए कहता है कि ‘ऐ अल्लाह! मैंने आपके लिए रोज़ा रखा है, मैं आप में विश्वास रखता हूं और मैं आपकी मदद से अपना रोज़ा खोलता हूं।’ मुस्लिम मत के अनुसार इफ्तार अल्लाह में विश्वास रखने वालों के लिए दो नमाजों के बीच माफी मांगने, आत्मविश्लेषण एवं प्रार्थना करने के लिए होता है।

इसलिए मैं इसको त्योहार न कहकर नवरात्र के व्रतों से भी अधिक कठिन व्रत समझता हूं। रमजान को मैं बहुत त्याग औरतपस्या वाला महीना मानता हूं। पर आजकल कुछ लोगों ने रमजान में रोज़ा (व्रत) रखने कोधार्मिक कार्य की बजाय राजनीतिक प्रहसन बना दिया है। रमजान के महीने में हर दिन जगह-जगह रोज़े के बाद इफ्तार पार्टियां होने लगी हैं। चांदनी चौक से दो बार सांसद रहते हुए मैंने कभी राजनीति के लिये इफ्तार पार्टी नहीं दी, जबकि मेरे ऊपर काफी दबाव था।इसके बावजूदमैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वहां के मुसलमान कभी मुझसे नाराज नहीं हुए और आज भी मुझे सबसे अच्छा सांसद मानते हैंजिसने अपने दोनों कार्यकाल में सभी समुदायों के लिए बराबर और सबसे बढ़िया काम किया। मैंने कभी रोज़ों को इफ्तार पार्टी करके
राजनीति से नहीं जोड़ा। हां, मैं ईद मिलन जरूर करता था और पूरे उल्लास से करता था।

यह साफ है कि रोज़ा इफ्तार पार्टियों का आयोजन करने वाले नेता केवल मुस्लिम वोटों को आकर्षित करने के लिए ऐसा करते हैं। यदि ये कार्यक्रम विभिन्न समुदायों के बीच आपसी सद्भाव को बढ़ाने की नीयत से आयोजित हों तो अलग बात है,लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं होता। रोचक बात यह है कि राजनीति में इफ्तार पार्टी देने की प्रथा पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते आरंभ हुई, जब वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के मुख्यालय में इफ्तार पार्टी करते थे और उस वक्त,जब मुस्लिम समुदाय का रोज़ा खोलने का वक्त होता था। 1970 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा और फिर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी औरराजीव गांधीने इफ्तार पार्टियों का राजनीति के लिए इस्तेमाल किया। ये इफ्तार पार्टियां एक तरह से दिल्ली के सामाजिक कलैण्डर का हिस्सा बन गईं।

अटल जी जब प्रधानमंत्री थे, तब मैं नहीं चाहता था कि यह दिखावा हो। पर लगा कि भाजपा के प्रधानमंत्री आने के बाद यह संदेश न जाए कि किसी समुदाय की उपेक्षा हुई। इतने सालों से राजनीतिक दल ही नहीं, राज्य सरकारेंभी इफ्तार पार्टियां कर रही हैं जिसमें जनता का पैसा खर्च होता है। जनता के मन में हमेशासे यह प्रश्न है कि सरकारें एक समुदाय के धार्मिक पवित्र त्योहार को मनाकर क्या संदेश देना चाहती हैं?

सबसे बड़ी बात मेरे मन में यह रही कि व्रत के महीने में पार्टियां क्यों हो रही हैं और जिन लोगों ने रोज़े नहीं रखे हैं, खास तौर से हिन्दू, वे इसमें शामिल क्यों हो रहे हैं? साथ ही जिन मुस्लिमों ने रोज़े नहीं रखे, वे भी रोज़ा खोलने में क्यों शरीक हैं?हिन्दुओं का इन व्रतों में आना और खाना तो बिल्कुल समझ नहीं आता। इफ़्तार के सिलसिले में धार्मिक निर्देश है कि किसी ऐसे आदमी को इफ़्तार की दावत देंगे, जो आपका जानकार हो, तो आप महसूस करेंगे कि आपके रिश्ते और मज़बूत हो गए हैं। कोशिश करें कि घर के सारे लोग एक साथ मिलकर इफ़्तार करें। इसमें घर पर जोर दिया गया है।

इफ्तार पार्टीबाजी, राजनीतिक गठबंधन को बनाने-तोड़ने या शक्ति प्रदर्शन के लिए नहीं है। यह तो दो प्रार्थनाओं के बीच के समय में आत्म मंथन करने का सुनहरा मौका देता है।इसीलिये जो लोग इफ्तार पार्टियां देकर खुश हो रहे हैं, उसमें खुश होने जैसा कुछ नहीं है।आजकल तो इफ्तार पार्टियों में सभी दलों के नेताओं को आमंत्रित करके अपनी ताकत दिखाने की कोशिश होती है। देश में राष्ट्रपति, उप- राष्ट्रपति औरप्रधानमंत्री भी इफ्तार पार्टी करते रहे हैं पर इन बड़े पदों पर बैठे लोगों ने कभी होली और दिवाली मिलन किया हो, ऐसा ध्यान नहीं आता। इफ्तार में गैर मुस्लिम नेता टोपी और साफा पहनकर अपने को धन्य समझते हैं और कई बार दुआओं के लिए इस तरह हाथ फैलाते हैं, जैसे उन्होंने भी नमाज अता की हो। यह कहां जरूरी है कि किसी धर्म के लोगों से मिलने और उनके उत्सव में शामिल हाने के लिए उन जैसा लिबास पहनकर शामिल हुआ जाए?

अच्छी बात यह है कि मोदी सरकार ने राजनीतिक प्रपंच की इस प्रथा पर लगाम लगाई है और मैं नहीं समझता कि मुस्लिम समाज ने इसे अन्यथा लिया होगा। रोज़ा तो उसी का खुलवाया जाता है, जिसने पूरे दिन रोज़ा रखा हो।जब किसी ने रोज़ा ही नहीं रखा तो उसको इफ्तार पार्टी में बुलाकर रोज़ा खुलवाना उस व्यक्ति व धार्मिक रीति को नीचा दिखाना नहीं तो क्या है? क्योंकि जिसने रोज़ा नहीं रखा, वह भी ऐसा दिखा रहा है, जैसे उसने रोज़ा रखा हो। खास तौर से कुछ मुस्लिम नेतागण।
रमज़ान में रोज़ा एक अहम इबादत है। इफ्तार पार्टियों में आमंत्रित लोगों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होती है, जिनका रोज़ा रखने से कोई लेना-देना नहीं होता और यदि कोई गरीब या यतीम इन इफ्तार पार्टियों में पहुंच जाए तो उसका स्वागत नहीं, बाहर का रास्ता दिखा देंगे। राजनीतिक पार्टियों द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टियों में सिर पर टोपी लगाकर स्वयं को मुस्लिम समाज का साबित करने की खास भावना बलवती नज़र आती है। इफ्तार का राजनीति से कोई संबंध नहीं है,लेकिन राजनीति का इफ्तार से संबंध गहरा होता जा रहा है। धर्म को लेकर राजनीतिक अवसरवादिता पर यह शेर सटीक बैठता है-

‘सियासत में ज़रूरी है रवादारी समझता है
वो रोज़ा तो नहीं रखता पर इफ्तारी समझता है’
 
हम देख रहे हैं कि कुछ दलों की राजनीति हर तरह की शुचिता से दूर होती जा रही है। ये पार्टियां हिन्दू और मुसलमानों को दो खेमों में बांटने की साजिश भी बहुत से स्तरों पर करने में लगी हैं। हालांकि देश के नागरिक बहुत समझदार हैं, इसलिए वे इनके झांसे में आने वाले नहीं हैं। लेकिन मुस्लिमों को वोट बैंक समझने वाली पार्टियां जब रमज़ान जैसे पाक मौके को भी सियासत का हथियार बनाती हैं तो उनकी सोच पर हंसी आती है। उन्हें समझना चाहिए किपरिवक्त लोकतंत्र में वोट मजहबी पार्टियों से नहीं मिलते,विकास और सिर्फ विकास से मिलते हैं।

(जनसत्ता, 11.05.2018)

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