Vijay Goel

बुरी हालत के शिकार दिल्ली के गांव

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)

कुछ समय पहले मैं हरियाणा के एक गांव में अपने बाप-दादा की पुरानी हवेली का जीर्णोद्धार कर रहा था और मैंने देखा कि यह हवेली चांदनी चैक की किसी हवेली से कम खूबसूरत नहीं है। हमारी हवेली के ठीक सामने उसी गांव में रहने वाला एक जाट परिवार अपनी हवेली को तोड़कर दिल्ली के माॅर्डन मकान की तरह बना रहा था। यही आज दिल्ली के गांवों का हाल हो रहा है। न तो इनकी गिनती शहर में हो पा रही है और न ये पूरी तरह से गांव ही रहे हैं, इसलिए इनको शहरीकृत गांव का नाम दे दिया। 

मैं दिल्ली के बहुत-से गांवों की चैपालों में भी बैठकर आया। मुझे गांवों में निराशा दिखाई दी। एक तो उन्हें दिल्ली की नई ‘आम आदमी पार्टी’ की सरकार से बहुत उम्मीदें थी, दूसरे उनसे कोई झूठे भी पूछने नहीं आ रहा। लोगों का कहना है कि आज नियम कानूनों की आड़ में गांव के लोग नारकीय जीवन बिता रहे हैं और सरकार कानों में रूई डाले बैठी है। गांव के बड़े-बूढ़ों ने कहा कि ‘‘गांव की और समस्याओं से तो हम निपट लेंगे, पर म्हारे नौज़वानों में जो षराब, नषे की लत पड़ गई है, उसमें सरकार म्हारी क्या मदद करेगी।’’ यह एक गांव में नहीं, मुझे बहुत-सारे गांवों में महिलाओं ने घेर-घेरकर इस बात को कहा। सवाल यह है कि दिल्ली सरकार गांवों की ओर ध्यान क्यों नहीं दे रही ?

सच बात तो यह है कि स्वर्गीय साहिब सिंह वर्मा जी के बाद किसी ने गांवों की सुध नहीं ली। गांवों में रहने वाले लाखों लोगों की तरफ आज कोई ध्यान देने को तैयार नहीं है। इन गांवों की भी विचित्र स्थिति है। 314 गांवों में से 135 तो शहरीकृत गांव हो गए हैं, जिनकी तो और भी ज्यादा बुरी हालत है। 

भाजपा दिल्ली का अध्यक्ष रहते हुए, मेरा दिल्ली के लगभग सभी गांवों में घूमना हुआ। बड़ी-बड़ी पब्लिक मीटिंगें की, पंचायतों में बैठा और गांवों की समस्याओं को जानने की कोशिश की तो पाया कि सबसे प्रमुख समस्या गांवों में शिक्षा की है। गांव के बच्चों को अच्छे स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता, क्योंकि वे फर्राटेदार अंग्रेजी नहीं बोल पाते। जो सरकारी स्कूल हैं, उनमें पढ़ाई नहीं होती। टीचर आते नहीं और आते हैं तो पढ़ाते नहीं। माहौल ऐसा है कि बच्चे भी पढ़ना नहीं चाहते। बच्चों को बीस-बीस किलोमीटर दूर चलकर पढ़ने के लिए जाने पड़ेगा तो कितनी रूचि रहेगी ? सरकार का ध्यान गांव में काॅलेज और यूनिवर्सिटी खोलने की तरफ है ही नहीं ।

दूसरी बड़ी समस्या है, परिवहन में बसों की है। गांवों के लिए बसें ही नहीं हैं। सरकार को कोई चिन्ता नहीं है। रोज अखबारों में हम पढ़ते हैं कि दस हजार बसें आ रही हैं। कहां के लिए आ रही हैं और कहां चलेंगी पता नहीं । गांव वाले कहते हैं, ‘‘जिब स्टैण्ड ही कोंनी, तो बस कित रूकेगी।’’ 

तीसरी समस्या, सड़कों का बुरा हाल है। सड़क में गड्ढा है या गड्ढों में सड़क है, कहा नहीं जा सकता। एक गांव वाले ने बताया कि सड़क पर इतने गड्ढे है कि कोई दोपहिए स्कूटर पर अपनी पत्नी को पीछे बिठाकर जा रहा हो तो दो-दो मिनट में हाथ लगाकर देखना पड़ता है कि ‘‘बैठी है या गिर गई।’’ और यह एक गांव की नहीं सभी गांवों की कहानी है। गांव में खेलने की तो सुविधाएं ही नहीं है। पार्क नाम की चीज नहीं है। काॅमनवेल्थ गेम्स के दौरान यह बात कही जाती थी कि गांवों में भी स्टेडियम बनेंगे, एक भी स्टेडियम नहीं बना और अगर कोई चीज बनती है, तो उसका कितना लाभ है इसका उदाहरण तीस साल पहले मुनीरका गांव में बना स्वीमिंग पुल है, जिसने पता नहीं कितने राश्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी दे दिए। 

गांवों के अन्दर सफाई व्यवस्था का भी बुरा हाल है। जब षहर में ही डस्टबिन नहीं है तो गांवों में कैसे होंगे, इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं। गांव वाले कहते हैं कि दस-दस दिन तक गांवों से कूड़ा नहीं उठता। ड्रेनेज सिस्टम है नहीं, जगह-जगह जोहड़ बन गए हैं। गांवों का गन्दा पानी बाहर ही नहीं निकल पाता। कुल मिलाकर गांवों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। निर्माण की हालत ऐसी है कि बिना रिष्वत कोई निर्माण हो ही नहीं सकता। 

गांव वालों की मुख्य समस्या जमीनों से ज्यादा जुड़ी हुई है। दिल्ली के गांवों को सर्किल रेट के दो हिस्सों में विभाजित कर दिया गया है, जो आजादी से लेकर आज तक कभी नहीं था। अभी दिल्ली सरकार ने गांवों में दो तरह के सर्किल रेट रख दिए। एक, साढ़े तीन करोड़ रूपए प्रति एकड़ और दूसरा डेढ़ करोड़ रूपए प्रति एकड़। 

मजे की बात देखिए, बिजवासन और पनवाला कलां गांव और छत्तरपुर वेस्टएंड ग्रीन में जहां 15 करोड़ एकड़ से ज्यादा का रेट है, वहां पर सर्किल रेट डेढ़ करोड़ प्रति एकड़ है और जहां जमीनों का मार्किट रेट कम है, वहां साढ़े तीन करोड़ प्रति एकड़ है। दिल्ली सरकार को जमीन का मार्किट रेट सर्किल रेट के हिसाब से रखना चाहिए, या फिर गांवों में एक ही सर्किल रेट हो, दो तरह का नहीं। 

गांवों के लोगों की पुरानी मांग है कि गांवों की चकबन्दी की जाए। लाल डोरे को बढ़ाए जाने की जरूरत है, क्योंकि पुराने लाल डोरों में जैसे-जैसे परिवार बढ़ते गए, वैसे-वैसे रहने के लिए जगह कम होती गई। चकबन्दी होने से, गांवों के लोगों को रहने के लिए पर्याप्त जगह मिलेगी। परिवार अब पुराने घरों के अन्दर पूरी तरह से सिमट गए हैं  चकबन्दी नहीं हुई, इसलिए लोगों ने मजबूरन मकान बना लिए, अब सरकार को चाहिए कि उनको कम से कम नियमित तो कर दे। 
दिल्ली की नई सरकार ने यह घोषणा की थी कि वह धारा 81 को समाप्त करेगी।  तीन साल तक किसी कारण से किसान अगर अपनी जमीन पर खेती नहीं कर पाता, मान लो सूखा पड़ जाए या कोई और कारण हो, तो क्या यह ठीक है कि उस गरीब किसान की जमीन को जबरदस्ती ग्राम सभा में वैस्ट कर दिया जाए ? 

धारा 33 को भी खत्म करने की मांग गांव वाले लगातार करते रहे हैं। यदि एक किसान के पास 8 एकड़ जमीन है तो सरकार कहती है कि या तो पूरी बेच, नहीं तो टुकड़ों में नहीं बेच सकता। अब यदि किसी के ऊपर कोई संकट आ जाए, जैसे शादी-ब्याह हो, या हारी-बीमारी में पैसे की जरूरत पड़ जाए तो क्या गांव वाला अपनी जमीन का एक भाग नहीं बेच सकता ? यह मेरी समझ से परे है। 

बहुत साल पहले जो भूमिहीन किसान थे, उनको बीस सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत खेती करने के लिए जमीन दी गई थी, जिनकी संख्या हजारों में है। उस समय उनसे वायदा किया गया था कि हम आपको मालिकाना हक देंगे। किन्तु बार-बार वायदे करने के बावजूद भी आज तक इन लोगों को मालिकाना हक नहीं दिया गया है।  74/4 के अन्तर्गत यह मालिकाना हक दिया जाना चाहिए था। 

अभी भारी वर्शा के कारण किसानों की फसलें बर्बाद हो गई थीं, उन्हें आज तक दिल्ली सरकार ने मुआवजा नहीं दिया। 20,000 रूपए एकड़ और 50,000 रूपए हेक्टेयर का मुआवजा पहले तो बहुतों को दिया ही नहीं गया और जिनको दिया गया, वह बहुत कम दिया गया।

दिल्ली सरकार का ग्रामीण डवलपमेंट बोर्ड गांवों के लिए जो पैसा देता था, वह पैसा भी नहीं आया, इसलिए गांवों में काम भी नहीं हो रहे। 

जरूरत आज इस बात की है कि गांव में रहने वाले लोगों के लिए विशेष योजनाएं और विशेष पैकेज बनें। नियमों में भी स्पश्टता होनी चाहिए। गांव एवं किसान विरोधी धाराओं को हटा देना चाहिए। हाउस टैक्स को ही ले लीजिए, दिल्ली नगर निगम में आज तक ये ही स्पश्ट नहीं कि गांवों के मकानों पर हाउस टैक्स लगेगा या नहीं लगेगा और अगर लग रहा है तो वसूल हो रहा है या नहीं हो रहा ? 

दिल्ली में राजनीति करने वाले लोगों को एक बार गांव वालों से रूबरू होकर उनकी समस्याओं को जानने की जरूरत है। दूसरी तरफ पंजाब की तरह यह न हो कि दिल्ली का नौजवान विशेष रूप से गांव का नौजवान जो बड़ी संख्या में बेरोजगार भी है, कहीं अपराध, जुआ, षराब, नषे की तरफ न मुड़ जाए। ऐसे स्वयंसेवी संगठनों की जरूरत है जो दिल्ली के गांवों में काम करें। दिल्ली केवल एनडीएमसी या नगर निगम की पॉश कालोनियों का नाम नहीं है, दिल्ली की आत्मा गांवों में बसती है। दिल्ली के लोगों को चाहिए कि एक बार अपने बच्चों को गांवों का भ्रमण जरूर करा लाएं, ताकि वे इस देष की संस्कृति और सभ्यता को नजदीक से समझ सकें। 
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